संस्कृत को जनभाषा बनाने के लिए सूचना क्रांति के इस युग में विभिन्न प्रयास किए जा रहे हैं। इसी कड़ी में राजधानी स्थित संस्कृत कॉलेज ने भी पहल शुरू कर दी है। अब यहां के छात्रों के साथ ही प्राध्यापक भी संस्कृत ब्लॉगिंग और ऑनलाइन जर्नल में अपने लेख और विचार भेजेंगे।
हिंदी और अंग्रेजी में संप्रभुता को लेकर छिड़ी जंग के बीच संस्कृत को जनभाषा बनाने की बात कहां तक सफल होगी? यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन आईआईटी मुंबई के स्टूडेंट बिपिन कुमार झा ने कुछ अलग ही करने की ठान रखी है। सिटी भास्कर से विशेष बातचीत में श्री झा ने कहा कि वे राजधानी के संस्कृत कॉलेज के छात्रों को अपने साथ जोड़ना चाहते हैं। संस्कृत कॉलेज भी उनका साथ देने के लिए तैयार है। कुछ माह पहले ही संस्कृत में ब्लॉगिंग शुरू करने के बाद श्री झा ऑनलाइन जर्नल ‘जाह्नवी’ का भी प्रकाशन कर चुके हैं।
इस त्रैमासिक पत्रिका के प्रधान संपादक पूर्व शिक्षाविद् डॉ. सदानंद झा हैं। इसमें आस्ट्रेलिया के भाषाविद् प्रो. पोटा भी सहयोग दे रहे हैं। इसके अलावा सहायक संपादको एवं संरक्षकों में देश-विदेश के संकायाध्यक्षों, प्रोफेसरों व शोध छात्र शामिल हैं।
देश-विदेश के विद्वानों को जोड़ेंगे : संस्कृत कॉलेज की प्राचार्या मुक्ति मिश्रा ने इसकी सराहना करते हुए कहा कि संस्कृत के लिए इस तरह का प्रयास पूरे देश में होना चाहिए। कॉलेज में चल रही परीक्षाओं के बाद उन्होंने श्री झा को कॉलेज बुलाने की बात कही। श्री झा ने भी माना कि रायपुर के संस्कृत कॉलेज से जुड़कर वे अपने उद्देश्य को बेहतर राह दिखा सकते हैं। वे सबसे पहले संस्कृत कॉलेजों को अपने साथ जोड़ेंगे। उन्होंने कहा, इसके बाद ही वे देश-विदेश के अन्य कॉलेजों के छात्रों की ओर अपना रुख करेंगे। संस्कृत कॉलेज के सभी प्राध्यापकों ने इस पहल की सराहना की है। कॉलेज में छात्र संघ के अध्यक्ष नीलेश शर्मा ने कहा कि कोई तो है जो संस्कृत के विकास के लिए आगे आया। सूचना-तकनीक के इस युग में संस्कृत को भी ऑनलाइन पढ़ने-लिखने पर निश्चित तौर से इसका विकास होगा।
यह है उद्देश्य: ऑनलाइन पत्रिका के प्रकाशन के पीछे संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार का उद्देश्य है। जाह्नवी पत्रिका में संस्कृत की वैकल्पिक भाषाओं के तौर पर अंग्रेजी और हिंदी का भी प्रयोग समझने के लिए किया गया है। इससे नए लोगों को अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक प्लेटफार्म मिलेगा। देश में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो संस्कृत के विकास के लिए कुछ करना चाहते हैं, लेकिन चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते। ऐसे में संस्कृत ब्लॉगिंग और ई-जर्नल ने कुछ आस जगाने का काम किया है।
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