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Passing through transition time phase our India needs that the vacuum between our traditional root value, heritage and modern young generation must be covered. As first Sanskrit E-Journal (Jahnavi Sanskrit E-Journal) a part of Sarsvat-Niketanam family is oriented to connect our new generation with this divine language which is the base of our root, identity & originality . To change public negative mindset towards of Sanskrit and to provide platform to creative thought and analysis related with Sanskrit on internet are our main priorities. For successful journey this mission expects a support of Sanskrit and Sanskriti lovers like you.

Monday, August 2, 2010

वसन्तांकः १

श्रीः
॥नान्दी वाक्॥


अद्यतनयुगे संस्कृतप्रसाराय प्रचाराय च कञ्चन नवीन पन्थानम् आश्रयन्ति संस्कृतविद्वांसः। तं वयं सुतराम् अभिनन्दामः.....।
संस्कृतक्षेत्रेऽपि उपयोगमानीयमानोऽयं पन्थाः सर्वेषां हिताय स्यात् इति नात्र कश्चन संदेहः। जाह्नव्याः प्रकाशनम् एतद्दिशायां सर्वथा अभनन्दनार्हम् इति। नापेक्ष्यते बहु वचः।
ज्ञानपीठ-पद्मश्री-राष्ट्रपतिसम्मानपुरस्कृतः
महामहोपाध्यायः, विद्यावाचस्पतिः, विद्यामार्तण्डः
प्रो० सत्यव्रत शास्त्री
Honorary prof. SCSS, JNU, Formerly prof and HOD (Sanskrit) -DU
Ex VC SJSU, Puri


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यद्यपि संस्कृतमाहात्म्यवशीकृतचेतनाः पाश्चात्या विपश्चितः प्रागेव तां विश्वभाषां घोषितवन्तः परन्तु सा खलु घोषणा सार्थवती न जाता मिथस्सम्वादहीनतया। सम्प्रत
ि जाह्नव्याः प्रकाशनेन स खलूक्तयो याथार्थ्यं सार्थकताञ्च भजत इत्यहं मन्ये...।
मिश्रोऽभिराजराजेन्द्रः।
पूर्वकुलपतिः
सं०सं० विश्वविद्यालयः
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एषा पत्रिका उत्तरोत्तरं वृद्धिं गच्छेत् इति भगवतः सप्ताचलाधिपतेः श्रीश्रीवेङ्कटनायकस्य पवित्रचरणकमलतले सन्ततं प्रार्थये।
प्रो० हरेकृष्ण सत्पथी
कुलपतिः, तिरुपति राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ मानित विश्वविद्यालयः
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अत्याधुनिकयुगेऽस्मिन्…. अनया प्रचेष्टया  समस्याह्वानं प्रत्यक्षीकृत्य संस्कृत शिक्षायाः द्रुतविकासाय नूतन साहित्याभिवृद्धये च नूनं समर्था भवेम वयम् इति
डा० सत्यनारायण आचार्यः
उपाचार्यः विभागमुख्यश्च
साहित्यसंस्कृतिसंकायः
तिरुपति राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ मानित विश्वविद्यालयः

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On behalf of all Sanskrit lovers in Australia I convey my best wishes on the launch of an important Sanskrit publication – Jahnavi…
My expectations from this journal are great and I feel confident that young India will meet these expectations and more.
Prof. Himanshu Pota
Australia
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संस्क्रुत ज्ञान-विज्ञान संवाहकम्। शुद्धबुद्धिसंवर्द्धकम्। अजरामरं संस्कृतम्। बहुप्राचीनमपि नित्यनूतनम्। एतादृशस्य संस्कृतस्य यद्यपि बहव्यः पत्रिका कार्यरतास्सन्ति तथापि  अन्तर्जालीयसंस्कृतपत्रिकाभावेन विश्वस्य विविधेषु
राष्ट्रेषु  विद्यमानाः संस्कृत प्रियाः हतोत्साहिनो भवन्तीति धिक्। एतादृशीं न्यूनतां दूरी कर्तुं…..
Dr. C.U Rao
Ex-chairperson SCSS, JNU
Associate professor & Project Director
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जाह्नवी नाम्ना जालयन्त्रद्वारा प्रसारिता पत्रिका रसभरनमिताङ्गी नानातन्त्रतत्वबिन्दुभरा विद्वन्मनोरंजनचातुरी प्रसन्नपदगम्भीरा गीर्वाणभारती सुरताभ्युदय विधात्री प्रतिभोन्मुखारंजयतु
Dr. K.E. Dharaneedharan
Siromani Nyay
Reader & Head Dpt  Sanskrit
Pondicherry University
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संस्कृत प्रचार-प्रसाराय शोधक्षेत्रे योगदानाय च प्रकाश्यमानां जाह्नवीं ज्ञात्वा मोमुद्यते मे मनः….
वस्तुतः संस्कृते  विद्यमानानां विषयाणां नूतनतथ्यात्मकरूपेण  जाह्नवी इति पत्रिकाप्रकाशनं  एकं श्लाघ्यं कार्यं विद्यते।

प्रो० सुखदेव भोई
Dean sahity & sanskriti
LBS Deemd University Delhi
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नवनवोन्मेषी यह जाह्नवी शोधपत्रिका संस्कृतजगत में निर्वाध निस्सरित होती रहे यह मेरी शुभकामना है।
सत्येन्द्र कुमार मिश्र
सम्पादक
विश्वपंचांग, BHU
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जाह्नवी पत्रिका का सम्पादन विषय का गाम्भीर्य एवं संस्कृत के जिज्ञासुओं के लिये एक महत्वपूर्ण कार्य है……..
प्रो० चन्द्रमा पाण्डेय
ज्योतिष विभाग, BHU
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एतादृशनां संस्कृतच्छात्राणां सत्प्रयासेन संस्कृतस्य प्रचारः प्रसारश्चावश्यं भविष्यत इति मे विश्वासः
प्रो० रमेशचन्द्रपण्डाः
 
संकायप्रमुखः
काशीहिन्दूविश्वविद्यालयः
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भगवन्तं विश्वेश्वरं प्रार्थये यदियं जाह्नवीजाह्नवीव सततं प्रवाहमाना लोककल्याणं साधयतु।
प्रो० कृष्णकान्त शर्मा
Ex- Dean Faculty of SVDV
Ex- Hony Director Malaviy bhavan
BHU
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आधुनिकरीत्या विज्ञानस्योपलब्धीनाम् उपयोगेन संस्कृतभाषायां जाह्नवी नाम्ना ई- त्रैमासिकी शोधपत्रिका प्रकाशतामेतीति ज्ञात्वा मोमुद्यते मे मनः।अस्मिन् कर्मणि सर्वान् साधुवाक्यैः संभूष्य पत्रिकेयं निरन्तरं
कौमुदीव सहृदयमनप्रह्लादनक्षमाभूय भगवन्तं सप्तगिरिसनाथं वेंकटेश्वरं संप्रार्थये।
Prof. K. R. Menon
Dean Faculty of Education
Co-ordinator UGC SAP (Edu)
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जाह्नवी पत्रिका न केवलं  सामान्यच्छात्राणां कृते परमोपादेया भविष्यति  अपितु ये संस्कृतानुरागिणो वर्तन्ते  तेषां समेषां कृते  अवश्यमेव लाभप्रदो भवितुमर्हतीति मे मति
Prof Brajesha Kumar
Lucknow University
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सूचनाप्रौद्योगिके युगेऽस्मिन्नेतादृक् पत्रिकाया प्रकाशनं संस्कृतजिज्ञासूनां शोधछात्राणां च कृते महदुपकाराय भवितेति मे विश्वासः।
Prof Prema Kumar Sharma
HOD  Dpt. Jyotish, LBS New Delhi
Programa co-ordinator SAP DRS
Editor Vidyapith Panchang
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जाह्नवीनाम्नी त्रैमासिकी शोधपत्रिका जाह्नवीव आचन्द्रतारार्कं प्रचलतु, ज्ञानपिपासां पूरयन्तु….
डा० के० आर० सूर्यनारायण
Dean, Faculty of Sahity & Saskriti

तिरुपति राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ मानित विश्वविद्यालयः
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बहूनां छात्राणां ऋषीणां गुरूणां आचार्याणामुपदेश परम्परागतानि तत्त्वानि सत्यवचनानि  जाह्नवी पत्रिकाद्वारा अन्तर्जाले निक्षिप्तानि  बहूनां छात्राणां शोधकर्तृणां चान्तोपयोगाय  भवेदिति विश्वस्मि।
Prof. T.V. Raghvacharyulu
तिरुपति राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ मानित विश्वविद्यालयः
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जाह्नवी के प्रकाशन से संस्कृत वाङ्मय के दुर्लभ खजाने का लाभ सभी प्राप्त कर सकेंगे, यह परम सन्तोष का विषय है। सम्पूर्ण दुनियाँ में इसके माध्यम से सही तथ्य प्रसारित हो सकेगा।
प्रो० सच्चिदानन्द मिश्रा
HOD, Faculty of samskritvidyadharmagam
BHU
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गवेषणात्मिका पत्रिकेयं समेषां गवेषकानां सनुन्नतये तथा च जगतः श्रेयसे अग्रे सरिष्यतीति दृढं मे विश्वासः।
Dr.Prabhat Kumar Mohapatra
HoD (Jyotish)

Puri
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संस्कृतसाहित्यसागरे विद्यमानानां ज्ञान रत्नानां प्रकाशनमियं जाह्नवी अभिनवशैल्या अति द्रुतगत्या सर्वत्र करिष्यतीति मे दृढो विश्वासः।
प्रो० राधाकान्त ठाकुरः
Ex- Dean Faculty of Ved-Vedangas
तिरुपति राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ मानित विश्वविद्यालयः
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जाह्नवी पत्रिकायाःसुयशार्थे मम ईश्वरं प्रति  प्रार्थनाः, स्वकीयाः सदिच्छा च सन्ति एव।
श्रीपादनामा अभ्यंकरेत्युपाव्हः
मुम्बई स्थितः अभियान्त्रिकः
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जाह्नवी संस्कृत ई-पत्रिका  उत्तरोत्तर् सफलता हेतु मेरी शुभकामनाएं...।
डा० गिरिजा शंकर शास्त्री
HOD, Dpt Sanskrit
Ishvar Sharan Degree College
Allahabad

Jahnavi.jpg
ग्रीष्माङ्कः

·         सम्पादकीयम्,

·         प्रकाशकीयम्

·         भवभूतिसाहित्ये संस्कारवर्णनम् -दिलीप कुमार दासः,

·         रघुवंशमहाकाव्ये संस्कारवर्णनम्- मधुमिता दास

·         नाट्यरसविवेचने रसवसु मूर्तिकारस्य प्रगल्भः-  डा० शशिकान्त द्विवेदी,

·         शास्त्रेषु मन्वन्तराणि- नीरज द्विवेदी,

·         वेदों का माहात्म्य- विविध सम्प्रदायों की दृष्टि में- राजेश सरकार

·         भगवान पाणिनिः- रामसेवक झा

·         स्त्रीधनविभाग समीक्षा- तनूजा मोहन्ती

·          Brahmākumārīs’ Dynamic Exposition on “Sat-Cit-Ānanda”- Sureswar Meher

·         चार्वाकाचारमीमांसा की आलोचनाओं की समीक्षा- ब्रजेश सोनकर

·         महर्षिपतंजलि के अष्टांगयोगमें विज्ञानभैरवमें प्रतिपादितउपायों का समावेश-सुजीत कुमार पाण्डॆय ,

·         National Heritage: How deep are our roots-Satyaprabha Sharma1 and Dr.Yamini Sharma 2

·         रोगविचारः निदानपक्षस्य ज्योतिषमूलेनान्वेषणं च- प्रो० सच्चिदानन्द मिश्रा,


·         A Critical Review on Sphoţa- Bipin Kumar Jha,

·         श्रीमद्भगवद्गीता मानवस्य जीवनाय किं -किं न करोति ?- सुमन दीक्षित,

·         मानसाभिप्रायज्ञं सङ्गणकम्- दीपेशः,

·         SANSKRIT POPSINGER-Lalita,

·         PERSONALITY DEVELOPMENT ACCORDING TO BHAGAVAD GITA - -ROHAN ACHYUT KULKARNI

·         कर्मयोगी आदर्शपुरुषः नारायणदास ग्रोवरः- डा० विमलेश झा,

·         SatyaNarayan Katha In English- Sandip Singh,

·         ज्योतिष शास्त्र में वायु कल्पना- डा० महाकान्त ठाकुर,

·         ज्योतिषे द्वितीयाभावनिरूपणम्- प्रदीप कुमार झा,

·         आधुनिकसंस्कृतसाहित्ये तन्मयकुमारभट्टाचार्यस्ययोगदानम्- नारायण दासः,






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Sn Jha.jpg
डा० सदानन्द झा
सम्पादकीयम्

अस्माकं काचिदन्या जगदुपरि समुद्भूतलावण्यबन्या
धन्या शैलेन्द्रकन्या त्रिभुवनजननी विश्वमान्यावदान्या।
निश्शङ्कं शंकराङ्के तडिदिव सहसा प्रोल्लसन्ती हसन्ती
रक्षा-दक्षा विपक्षा वलिविनयकरी शंकरी शंकरोतु॥


अये विविधविद्याविद्योतितान्तः करणाः विद्यार्थिवृन्दसमुपास्यमानचरणाः सुविमलमनसः सुमनसः सुर-सरस्वतीनिबद्धरतयः सुमतयः सरसमानसाः कवयः, अन्तर्जालीयजाह्नवीसंस्कृतपत्रिकायाः द्वितीयाङ्कं ग्रीष्माङ्कं तत्रभवतां सारस्वतसमुपासकानां श्रीमतां पुरस्तादुपस्थापयन् नितरां प्रमोदभरमनुभवामि।
सुविदितचरमिदं विपश्चितां यदियं सुरभारती सुविकासाय। यूनामनुसन्धिक्षूनां लाभाय, शास्त्राध्ययना्यापनश्रान्तमनसामध्यापकानां मनोविनोदाय स्वदेशे विदेशे च सुरवाचः सत्य-शिव-सुन्दर सन्देश प्रसाराय छात्राणामानन्दाय मेधा सम्बर्धनाय च अन्तर्जालीयसंस्कृतजाह्नवी त्रैमासिकी पत्रिका सर्वप्रथमा महिमशालिनी च प्रतिभातिनाम।
प्रकृतसारस्वतेऽस्मिन् मखे नानाप्रान्तीयपण्डितप्रकाण्डानां सोल्लासं प्रदत्तेभ्यः वर्द्धापन-प्रोत्साहनपत्रेभ्यः सुखमनुमीयतेऽस्याH सौभाग्यभरःसाफल्योपलम्भश्च । अतोहमेतान् प्रथितविदुषः प्रतिहार्दिकीं कृतज्ञतां ज्ञापयामि।
विदांकुर्वन्तु तत्र भवन्तो विद्वांसो यदियं जाह्नवी पत्रिका बसन्तपंञ्चम्याः पावनावसरे तिरुपतिस्थ राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ मानित विश्वविद्यालकुलपतिभिः प्रो० हरेकृष्ण सत्पथिमहाभागैः समुद्घाटिताभूत्। नैकेषां विद्वन्मूर्द्धन्यानां सतत् सुरसरस्वतीसेवासनुलग्नमनसां प्रथितयशसां कृपार्णावानां कुलपतिमहाागानामुपकृतिभरः विस्मरणीय स्यात् येषां साहाय्यलवेनेयं पत्रिकाकल्पलतेव सततं पल्लविता पुष्पिता सफला च भवेत्।
अन्येषामपि विदुषां नानाशास्त्रीयनिबद्धान् सम्प्रेष्यसमुपकृतवतां सतामाधमर्णतां सादरं बिभृमः। येषां सहयोगमासाद्य सारस्वत् रण्गस्थले पत्रिकेऽयं नरीनृत्यते।
अतस्तान् पण्डितवरान् सादरंवन्दमानावयं कामयामहे यदियं जाह्नवी पत्रिका जाह्नवीव विश्वजनमनोभूमिं परिपुनन्ती सर्वथाऽप्रतिहतरयं प्रवहतुतमामिति|


विविधशास्त्रविचारविलासिनी सरस काव्य-कथादि विकासिनी।
 
सकलपण्डितमानसतोषणी विजयतां भुवि पावनजाह्नवी॥


इति
विदुषां पदसपद्मचंचरीकः
झोपाख्यः सदानन्दः

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आत्मानं रथिनं विद्धि
(प्रकाशकीयम्)

आत्मानं रथिनं विद्धि.कठोपनिषदि एतादृशी पङ्क्तिः लभ्यते। पङ्क्तिस्तु सामान्यार्थं जनयति किन्तु एतस्याः भावार्थ: महान्। सर्वदा वयं पराश्रिताः भवामः!! यदि स एवं करिष्यति तर्हि एतत् कार्यं भवितुम् अर्हति इति एव विचाराः अस्माकं मनसि सर्वदा परिभ्रमन्ति फलतः स्वयमेव यत् कर्तुं शक्यते अस्माभिः तदपि
 क्रियते।
          यदा वसन्ताङ्कः आगतः  तदा जाह्नवी सदस्यानां संस्कृतसमुपासकानां च जिज्ञासा वर्द्धिता किन्तु मदीया इच्छा आसीत् यत् जिज्ञासैषा दिने दिने वर्द्धमाना स्यात् शुक्लपक्षे यथा शशी । यया उत्साहवर्द्धनं भवेत् अपि च संस्कृतस्य प्रचार-प्रसारश्च भवेत्। सामान्यतया एवं भवति यत् वसन्तकाले तु उत्साहयुताः सन्तः वयं कठिनतमं कार्यम् अपि तृणवत् मन्यामहे किन्तु ग्रीष्मकाले तदेव कार्यं न सुकरं भवति। कालिदासः समीचीनम् एव कथयति-

सुभगसलिलावगाहाः पाटल संसर्गि सुरभिवनवाताः।
 
प्रच्छायसुलभनिद्रा दिवसाः परिणाम रमणीयाः॥ शाकु०१/३

           
तत्र श्रीमतां पुरतः इदं सूचयन् मोमुद्यते मे मनः यत् अस्माकं जाह्नवी सदस्यैःसंस्कृतानुरक्तजनैश्च द्विगुणितोत्साहेन सारस्वतसमुपासना कृता तत्फलं भवत्पुरतः एव अस्ति। अग्रिमाङ्कः गुरुपूर्णिमावसरे भवत्पुरतः भविष्यति। तस्य कृते शोधपत्र-चित्रकथा-प्रहेलिका-उपन्यास-कविता-गीतिका-सम्वादा:संस्कृतेन अनूदिता: अन्यरचना वा NEW EVENTS मध्ये यथानिर्दिष्टं प्रेषयतु इति निवेदनम्।
अन्ते संस्कृतानुरक्तजनानां कृते मे कथनं यत् अन्यैः संस्कृतोत्थानस्य कृते किं क्रियते इति अविचारयन्त: आत्मानम् एव रथिनं मत्वाना: संस्कृतोत्थानम् चरमलक्ष्यं मत्वाना: यथाशक्यं निरन्तरं कार्याणि कुर्युः इति एव मन्निवेदनं सादरम्।
सरस्वतीसमुपासकः

प्रकाशकः
ज्ाहनाव॥िजपग



-व-ूतिसाहित्ये संस्कारवर्णनम्





छलिलपि क्ुमार दासण१क्ष॥जपग

दिलीप कुमार दासण१क्ष

संस्कार शब्दस्यार्थ:

संस्क्रियत इति संस्कार:। ङसम्ङ उपसगपूर्वक ङकृञ्ङ धातो: ङघञ्ङ प्रत्ययेन एवं घसंपरिभ्यां करोतौ -ूषणेघण२क्ष इति सूत्रे -ूषणार्थे ङसुट्ङ प्रत्यये घसंस्कारघ शब्द: निष्पद्यते। संस्कारप्रकाशग्रन्थानुुसारं घ आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योऽतिशयविशेष: संस्कार:घ इति ज्ञायते । आचार्यचरकस्य मते घसंस्कारो हि गुणान्तराधानम्घण३क्ष इति उच्यते। संस्कृतसाहित्ये संस्कारशब्दस्य प्रयोग: शिक्षाॅसंस्कृतिॅप्रशिक्षणॅ सौजन्यपूर्णताॅव्याकरणशुद्धिॅसंस्करणॅपरिष्करणॅशो-ा-ूषणप्र-ावस्वरुपॅस्व-ावॅ क्रियाछायाॅ स्मरणश­िॅस्मरणश­िगतप्र-ावॅशुद्धिक्रियाॅधार्मिकविधिविधाना-िषेकॅविचार-ावानाधारणा ॅ  कार्यपरिणामॅक्रियाॅविशेषताद्यर्थेषु  कृतो वर्तते।

शिक्षासंस्कृतिप्रशिक्षणरूपसंस्कार:  रघुवंशे प्राप्यते। यथा ॅ

घनिसर्गसंस्कारविनीत इत्यसौ नृपेण चक्रे युवराजशब्द-ाक्घ। इति॥॒ण४क्ष

एवं महाकवि कालिदास: सौजन्यपूर्णताव्याकरणशुद्धिरूपसंस्कारं कुमारसम्-वे वोधयति। यथाॅ

घसंस्कारवत्येव गिरा मनीषी तया स पूतश्च वि-ूषितश्चघण५क्ष। इति॥

संस्करणपरिष्करणरूप: संस्कार: इति च रघुवंशे बोधयति कालिदास:। यथा ॅ

घप्रयु­संस्कार इवाधिकं ब-ौघण६क्ष। इति॥

तथा शो-ा-ूषणरूप संस्कारोऽपि शाकुन्तले प्राप्यते। यथा ॅ

घस्व-ावसुन्दरं वस्तु न संस्कारमपेक्षतघण७क्ष। इति॥

प्र-ावस्वरूपस्व-ावक्रियाछायारूप: संस्कार इति हितोपदेशे प्राप्यते। यथा ॅ

घयन्नवे -ाजने लग्न: संस्कारो नान्यथा -वेत्घ ण८क्ष। इति॥

स्मरणश­ौ समागतप्र-ावरूप: संस्कार: इति  तर्कसङ्ग्रहे निरूप्यते। यथा ॅ

घसंस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृति:घण९क्ष। इति॥

शुद्धिक्रियाधार्मिकविधिविधानरूप: संस्कार: मनुस्मृतौ प्राप्यते। यथा ॅ

घकार्य: शरीरसंस्कार: पावन: प्रेत्य चेह चघण१०क्ष। इति॥

अ-िषेकविचार-ावानाधारणाकार्यपरिणामक्रियाविशेषतारूप: संस्कार: रघुवंशे सूचित:। यथा ॅ

घफलानुमेया: प्रारम्-ा: संस्कारा: प्रा­ना इवघ॥ इति॥ण११क्ष



संस्कारस्य प्रयोजनम्

संस्कारस्य प्रयोजनं महत्वं च वक्तुं गवेषण दृष्ट्या बहु काठिन्यम् अस्ति। लोकप्रियप्रयोजनविचारकाले अस्मा-ि: ध्यातव्यम् इदं यत् संसारस्य अन्यदेशवद् हिन्दूनामपि विश्वास आसीत्। अवाच्छितप्र-ावान् निराकर्त्तुं  हिन्दूजना: स्व संस्कारान्तर्गतानाम् अनेक साधनानामवलम्बनं कृतवन्त:। तत्र प्राथमिकं स्थानमाराधनस्य आसीत्। धनधान्यपशुसन्तानदीर्घजीवनसम्पत्समृद्धिबृद्धिप्राप्तिरिति संस्काराणां -ौतिकम् उद्देश्यम् आसीत्। हिन्दूनां प्राचीनधार्मिककृत्येभ्य: संस्कारेभ्यश्च यस्य सांस्कृतिकप्रयोजनस्य समुद्भवोऽ-वत्स आसीद् व्य­ित्वस्य निर्माता तथा विकास शील:।

संस्कारस्य वि-ाजनम्

शास्रदृष्ट्या संस्कार: गृह्यसूत्रविषयान्तर्गत: -वति। गृह्यसूत्रे साधारणत: विवाहात् आरभ्य समावर्तनं पर्यन्तं दैहिकसंस्काराणां निरुपणं क्रियते। पारस्कराश्वालायनबौधायनवाराहवैखानसादि गृह्यसूत्रेषु संस्काराणां वर्णना लभ्यते। सर्वेषु धर्मसूत्रेषु संस्कारस्य विस्तृतं वर्णनं गृह्यसूत्रवत् उल्लिखितंं नास्ति। परन्तु उपनयनम्। विवाह:। उपाकर्म। उत्सर्जनम्। अध्ययनम्। अशौच: इत्यादीनां केषंाचित् विवरणं प्राप्यते। यथा गौतम धर्मसूत्रे चत्वारिंशत् संस्कारा: अष्टौ आत्मगुणाश्च प्रस्तूंयते। स्मृति ग्रन्थानुसारं संस्कारशब्दव्यवहार: धार्मिक: कर्मानुष्ठानार्थे दृश्यते। मनुना गर्-ाधानात् आरभ्य अन्त्येष्टिं यावत् त्रयोदश संस्कारा: वोधिता: । याज्ञवल्क्यस्मृतौ केशान्तसंस्कारं अपहाय पूर्वोक्त संस्कार: स्वीकृत:। गौतमस्मृति: चर्तुदश संस्कारान् स्वीकरोति। व्यासस्मृतौ वर्णित: संस्कारा: षोडश ।

महाकविूतिसाहित्ये संस्कार:

-व-ूते: कृतिषु नामधेय:। चूडाकरणम्। विद्यारम्-:। उपनयनम्। वेदारम्-:। गोदानम्। विवाह:। जन्मोत्सव: इत्यादि संस्काराणां वर्णनम् उपलभ्यते।

सर्वोऽपि व्यवहारे  नाम्नैव प्रचलति। अत: नामकरणं व्यवहारनिर्वाहार्थमेव। मनुस्मृतौ कथ्यते -

नामधेयं दशाभ्यां तु द्वादश्यां वास्य कारयेत्।

पुण्ये तिथौ मुहुर्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते ।।इति।।ण१२क्ष



तथैव उत्तररामचरिते नाटके लवकुशयो: नामधेयसंस्कारस्य चर्चां कृत्वाण१३क्ष। तत: चूडाकरणम्। विद्यारम्-:। उपनयनम् एवं वेदारम्-: इत्यादि संस्काराणां सम्बन्धविषये आत्रेयीद्वारा बोधितम्।

चूडाकरणानन्तरं  आन्वीक्षकी। वार्ता। दण्डनीति: इति त्रय्या: अध्ययनं लवकुशयो:

-गवान् वाल्मीकि: सम्पादयामास।

तदनन्तरं महर्षिद्वारा एकादशेवर्षे क्षत्रियधर्मो­ रीत्या यज्ञोपवीत संस्कारं सम्पाद्य तयो: वेदाध्ययनं कारयामास।ण१४क्ष

मनुरपि आह इति-

ङ्क्त गर्-ाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।

गर्-ादेकादेशे राज्ञो गर्-ात्तु द्वादशे विश:॥ इति॥ण१५क्ष

क्षत्रियधर्मशास्त्ररीत्या एकादशेवर्षे उपनयनं विहितं वर्तते क्षत्रियाणाम्। महावीरचरिते अपि रामलक्ष्मणयो:  उपनयन संस्कार: वर्णित:।ण१६क्ष उपनयनात् पूर्वं वेदाध्ययने अधिकार नास्ति। उपनयनानन्तरमेव वेदाध्ययनं कार्यम्। यत: तदेव उपनयनस्य प्रयोजनम् तदाहॅ



उपनीय गुरु: शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादित:।

सकल्पं सरहस्यञ्च तमाचार्यं प्रचक्षते॥ इति॥ण१७क्ष

राज्ञो यज्ञोपरिसमाप्तौ विततगोदानमङ्गला: कुमारा: परिणेष्यन्तीति इति विश्वामित्र: वसिष्ठं प्रति सन्देशं प्रेषयति इति महावीरचरिते दृश्यते।ण१८क्ष अयं विषय: उत्तररामचरितेऽपि विवृत:। प्राचीनकाले जन्मत्सोवसंस्कार: अतीव पवित्रतया निर्वहित:। प्रतिवर्षं बालानां जन्मतिथौ। तस्या अतीतवर्षस्य संख्यासूचनार्थम् सूत्रे गुग्गुलु। गोरचना। दुर्वादिनि मङ्गल प्रदायकानि द्रव्याणि स्थापयामासु:। एवं अत्र नाटके लवकुशयोरपि जन्मतिथिमहोत्सव: अनुष्टित:।ण१९क्ष

यथा मनुस्मृत्यनुसारंॅ

प्राङ् ना-िवर्धनात् पुंसो जातकर्म विधीयते।

मन्त्रत: प्राशनञ्चास्य हिरण्यगमधुसर्पिषाम्।इति॥ण२०क्ष

अर्थात् ना-िच्छेदनात्प्राक् पुरुषस्य जातकर्माख्य: संस्कार: क्रियते। तदा स्वगृह्योक्तमन्त्रै: स्वर्णमधुघृतानां प्राशनं मुख्यं कृतमस्ति।

विवाहसंस्कारविषये बहु शास्त्रीयं विवेचनं लभ्यते। सर्वसुल-मपि विवाहपरिज्ञानमिति।

विवाहादेव सत्सृष्टि: सत्सृष्टयैव जगत्त्रयम्।

चतुर्वर्गफलावाप्तिस्तस्मात्परिणय: शु-:॥

मनुस्मृत्यनुसारं विवाहस्येमेऽष्टौ प्रकारा:।ण२१क्ष तन्मध्येषु गान्धर्व विवाह अन्यतम:।ण२२क्ष कन्याया वरस्य चान्योन्योनुरागेण य: परस्परसंयोग आलिङ्गनादिरूप: स गान्धर्वो ज्ञातव्य:। अयं विवाह मालतिमाधवे परिदृश्यते।

यथा  मालतीमाधव नाटके   -व-ूति: एवं प्राह ॅ विवाहसंस्कारे वधूवरयो: परस्पर: अनुराग: एव विवाह कर्मणि उत्तमं मङ्गलं -वतीति।ण२३क्ष मालतीमाधवे अमुं विषयं दृढयति -व-ूति: इत्यमेवादि प्रकारेण महाकविकृतिषु कङ्कणधारणम्। कङ्कणमीक्षणम्। पाणिग्रहणम्। इत्यादि विवाहसंस्कारा: अनेकधा उल्लेखिता: दृश्यन्ते।ण२४क्ष

एवं -व-ूति: स्वकाव्ये यथाधर्मशास्त्रं संस्कारवर्णनम् तत्र तत्र प्रास्तौषीत्। यदत्र विस्तर-िया संग्रहेण प्रादर्शि मया।

ण१क्ष शोधछात्र:। संस्कृत वि-ाग:। पाण्डिच्चरी विश्वविद्यालय:। पाण्डिच्चेरी।

ण२क्ष पाणिनी ॅ ६॒१॒१३७

ण३क्ष चरकसंहिता। विमान॥ १॒२७

ण४क्ष रघुवंशम्। ३॒३५

ण५क्ष कुमारसम्-वम्। १॒२८

ण६क्ष रघुवंशम्। ३॒१८

ण७क्ष शाकुन्तलम्। ७॒३३

ण८क्ष हितोपदेश:। १॒८

ण९क्ष तर्कसंग्रह:

ण१०क्ष मनु॥स्मृ॥। २॒२६

ण११क्ष रघुवंशम्। १॒२०

ण१२क्ष मनु २ॅ३०

ण१३क्ष तयैव किल देवतया तयो: कुशलवाविति नामनी प्र-ावश्चाख्यात:। ्यउ०रा० २ अङ्कफ

ण१४क्ष निर्वत्तचौलकर्मणोस्तयोस्त्रयीवर्जमितरास्तिस्त्रो विद्या: सावधानेन परिनिष्ठापिता:। तदनन्तरं गर्-कादेश वर्षे क्षात्रेण    कल्पेनोपनीय गुरुणा त्रयीविद्यामध्यापितौ। ्यउ०रा० २ अङ्कफ

ण१५क्ष मनु २ॅ३६

ण१६क्ष राजन्यदारकौ नूनं कृतोपनयनाविति। ्यमहाविरचरित १ॅ१६फ

ण१७क्ष याज्ञ १ॅ१५

ण१८क्ष महाविरचरित १ॅ५८

ण१९क्ष वत्से देवयजनसम्-वे सीते ् अद्य खल्वायुष्मतो: कुशलवयोर्द्वादशस्य जन्मवत्सरस्य संख्यामङ्गलग्रन्थिर-िवर्तते।

तदात्मन: पुराणश्वशुरमेतावशो मानवस्य राजर्षिवंशस्य प्रसवितारमपहतपाप्मानं देव स्वहस्तावचितै: पुष्पैरुपतिष्ठस्व।

्यउ०रा०   ३ अङ्कफ

ण२०क्ष  मनु २ॅ२९

ण२१क्ष  मनु ३ॅ२९



ण२२क्ष  मनु ३ॅ३२

ण२३क्ष  इतरेतरानुरागो हि विवाहकर्मणि परार्ध्यं मङ्गलम्। गीताश्चायमर्थोऽङ्गिरसा यस्यां मनश्चक्षुषोनिर्बन्धस्तस्यामृद्धिरिति।

मालतिमाधवॅ पृ १०२

ण२४क्ष ्यउ०रा० ३ अङ्क श्लोक:फ ्यमहाविरचरित २ॅ५०फ



ज्ाहनाव॥िजपग



म्ादहुमतिा छास॥जपग

मधुमिता दास



रघुवंश महाकाव्ये संस्कारवर्णनम्ण१क्ष

घशतायुर्वै पुरुष:घ इति वचनानुसारं शतवर्षं यावत् मानवानाम् आयुष: परिकल्पना जाता। अस्निन्नेव समये इह संसारे जीवननिर्वाहार्थ मानवानां कृते किञ्चित् संस्कारविषये विवेचनं दरीदृश्यते। संस्कारेण मनुष्य: संस्कृतो -वति। मनुष्यस्य समग्रं जीवनम-िव्याप्य संस्कारा: प्रवर्त्तिता: सन्ति। संस्कारा: -ारतीयसंसकृते: अङ्ग-ूता:। संस्कारानुष्ठानेन मनसि पवित्रमय-ाव: आगच्छति। यथा दूषितजलस्य संस्कारेण तस्य विनियोग: सर्वत्र कर्त्तुं शक्यते तथैव संस्काराणामनुष्ठानेन मनुष्यस्य सर्वकर्मसु अर्हता आगच्छति। अतोऽयु­स्य पदार्थस्य योग्यताऽपादनं नाम संस्कार:। वेद: संस्काराणां मूलं -वति। तत: सर्वेषु संस्कारेषु वैदिकमन्त्रा: उपयुज्यन्ते।

एते संस्कारा: यदा कदापि यत्र कुत्रापि येन केनापि वा स्वेच्छाया कर्तुं न शक्यन्ते एतेषां संस्काराणां विधानार्थं स्थानॅकालॅपात्राणां विषये कश्चन विशेष: नियम: अस्माकं मुनिऋषि-ि: विहिता: ब्राह्मणॅक्षत्रियॅवैश्यॅशूद्राणां कृते विशेषविधिना -िन्न-िन्नतया संस्कारा: क्रियन्ते।

संस्कारशब्दस्य निष्पत्ति: समुपसर्गात् कृञ्धातो: घञ्प्रत्यये पुंलिङ्गे एव -वति। अर्थात् प्रतिपन्नोऽनु-व: मानसकर्म वेति मेदिनीकोशकारस्य अ-िमतम्। मानवस्य मुख्यसंस्कारा अष्टचत्वारिंशत् संख्यका: वर्त्तन्ते। तेषु षोडश एव प्रायशो मुख्यत्वेन धर्मग्रन्ेथषु संगृहीता:। तेषां प्रमुखसंस्काराणां नामानि यथा ॅ

गर्-ाधानम्। पुंसवनम्। सीमन्तोन्नयनम्। जातकर्म। नामकरणम्। निष्क्रमणम्। अन्नप्राशनम्। वपनक्रिया। कर्णवेध:। व्रतादेश:। वेदारम्-:। केशान्त:। समावर्त्तनम्। विवाह:। विवाहाग्निपरिग्रह:। त्रेताग्निसंग्रहश्च इति।

संस्कारस्य उद्देश्यम्

अवाञ्छितप्र-ावस्य निराकरणम्। अ-ीष्टप्र-ावानामामन्त्रणम्। धनॅधान्यॅपशुॅसन्तानॅदीर्घायु: ॅसमृद्धिॅश­िॅबुद्धीनां प्राप्ति:। जीवद्दशायां बहूनां हर्षानन्दविषाद-ावना-िव्य­ीकरणम्। सामाजिकविशेषाधिकारेषु दायित्वप्राप्ति इत्येतत् संस्कारस्य उद्देश्यम् -वति । यथाॅ उपनयनात् परं वेदाध्ययने धार्मिकक्रियासु अधिकारश्च। व्य­े: नैतिकविकास:। व्य­ेरन्त: करणे सामाजिकदायित्वबोधकतया आगमनमिति।

संस्कृतसाहित्ये संस्कारशब्दस्य प्रयोग: -िन्न-िन्नार्थेषु प्राप्यते। कालिदासस्य काव्ये संस्कारस्य प्राधान्यता दृश्यते। गृह्यसूत्रे ये च संस्कारा: वर्णिता:। तेषां संस्काराणां वर्णनं कालिदासेन अपि तत्तत्काव्येषु प्रादर्शि।

यद्यपि महाकवे: कालिदासस्य बह्व्य: कृतय: विद्यन्ते। तथापि रघुवंशमहाकाव्ये गर्-ाधानम्। पुंसवनम्।सीमन्तोन्नयनम्। जातकर्म। नामकरणम्। अन्नप्राशनम्। चूडाकरणम्। विद्यारम्-:। उपनयनम्। वेदारम्-:। केशान्त:। विवाह:। अन्त्येष्टि: इत्यादीनां संस्काराणां तत्र तत्र प्रयोग: दृश्यते।

रघुवंशे संस्कारवर्णनम्

गर्-ावस्थायां सर्वदा पत्नी कथं प्रसन्ना -विष्यति इति विषये पत्यु: कर्तव्यत्वेन वर्णयति कालिदास: रघुवंशे।

नारी साधरणत: लज्जाशीला। अत: सुदक्षिणा गर्-ावस्थायां लज्जाबशात् किमपि अ-ीष्टं न प्रकटितवती। तस्या केषु केषु अ-िलाष: वर्तते इति प्रतिक्षणं सुदक्षिणाया: सखीं सादरं राजा दिलीप: पृच्छतिस्म। यथा दिलीप: कथयति ॅ

न मे ह्रिया शंसति किञ्चिदीप्सितं स्पृहावती वस्तुषु केषु मामधी॥ इति॥ण२क्ष

गर्-ावस्थायां सुदक्षिणा यत् किमपि वस्तु अ-िलषति तत् सर्वं राजा तस्या: सखीमुखात् ज्ञात्वा स्वर्गमपि तत्पुर: स्थापितवान्। राजा दिलीप: तस्य अन्तसत्त्वां पत्नीं सुदणिक्षां रन्तगर्-ां पृथ्वीमिव। स्वमध्यस्थितवह्नियुतां शमीमिव। गुप्तजलयु­ां सरस्वती नदीमिव विवक्षतेस्म। यथा रघुवंशे ॅ

निधानगर्-ामिव सागराम्बरा शमीमिवाभ्यन्तरलीनपावकाम्।

नदीमिवान्त:सलिलां सरस्वतीं नृप: ससत्वां महिषीममन्यत॥ण३क्ष इति॥

अत: एतत् रूपेण गर्-ाधान संस्कारस्य वर्णनम् अकारि।

राजा दिलीप: स्ववै-वानुसारं स्वप्रियास्नेहानुकूलं। दिगन्तेषु सम्पदा: धृते: घपुत्रो मे -विष्यतिघ इति सन्तोषस्य। सन्तोषानुरूपं च पुंसवनादिगर्-संस्कारं कृतवान् इति एकस्मात् श्लोकात् पुंसवनसंस्कार: कृत इति वर्णित:। यथा ॅ

प्रियानुरागस्य मन:समुन्नतेर्-ुजार्जितानां च दिगन्तसम्पदाम्।

यथाक्रमं पुंसवनादिका: क्रिया धृतेश्च धीर: सदृशीव्यर्धत्त स:॥ण४क्ष इति॥

राजा दिलीप: पुत्रहीनहेतो: पितृऋणात् मु­: -वितुं न शक्यते। अत: रघो: जन्मनानन्तरं पितृऋणात् मु­: अ-वत्। अत्र रघो: जातकर्म संस्कारस्य सूचना प्राप्यते। यथा तपस्वी वसिष्ठं दिलीपस्य सूनु: अजन्म इति श्रृत्त्वा तपोवनात् आगत्य स: तेजस्वीबालकस्य जातकर्मसंस्कारमकरोत्। जातकर्मसंस्कारानन्तरं स: बालक: हीरकादिमणि: इव सुशो-ितवान््।

जातकर्मानन्तरं नामकरणसंस्कारस्य वर्णना प्राप्यते। अर्थज्ञो राजा दिलीप: बालक: श्रुतस्य पारं गमिष्यति तथा शत्रूणां विनाशने समर्थ: -विष्यतीति विचार्य लंघते इति रघुरिति अन्वर्थं नाम चकार। अत: ॅ

श्रुतस्य यायादयमन्तमर्-कस्तथा परेषां युधि चेति पार्थिव:।

अवेक्ष्य धातोर्गमनार्थविच्चकार नाम्ना रघुमात्मसं-वम्॥ण५क्ष इति॥

चूडाकरणसंस्कार: अनन्तरं स: काकपक्ष: रघो: स्निग्धै: मन्त्रिपुत्रै: सह लिपि शिक्षणमकोरत्। विद्यारम्-संस्कारेण शब्दसागरे अयं रघु: अन्त: प्रविष्ट: यथा मकर: सागरस्य अन्त: प्रविशति। अनेन विद्यारम्-संस्कारस्य महत्वं प्रत्यपादि कालिदासेन। यथा ॅ

स वृत्तचूलश्चलकाकपक्षकैरमात्य पुत्रै: सवयो-िरन्वित:।

लिपेर्यथावद्ग्रहणेन वाङ्मयं नदीमुखेनेव समुद्रमाविशत्॥ण६क्ष इति॥

एवं उपनयनसंस्कारोऽपि रघो: वर्णित: कविना।

उपनीय तु य: शिष्यम् वेदमध्यापयेत् द्विज:।

सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते॥ इति॥

गर्-ाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।

गर्-ादेकादशे राज्ञो गर्-ाच्च द्वादशे विश:॥ इति॥

मानववचनानुसारं उपनयनम् कारयित्वा वेदान् तदङ्गानि च अध्यापयामासु: गुरुजना: इति कालिदास: प्राह ॅ



अथोपनीतं विधिवद्विश्चितो विनिन्युरेनं गुरवो गुरुप्रियम्।

अवन्ध्ययत्नाश्च ब-ूवुरत्र ते क्रिया हि वस्तूपहिता प्रसीदति॥ण७क्ष इति॥॒

अत्र क्रिया हि वस्तूपहिता प्रसीदति इत्यनेन अस्य रघो: शिक्षा ग्रहण योग्यता प्रदर्शिता।

अनेन एवं प्रतीयते यत् उपनयनम् यावत् विहितसकलसंस्कारै: स्ववंशानुक्रमं रघु: संस्कृत: इति तस्य सत्पात्रत्वं प्रदर्शयति कवि:।

एवं समग्रं शास्त्रं कुशाग्रधीया अधित्य तत्तच्छास्त्रेषु प्रवीणतां प्राप रघु:। एवं सति उचिते वयसि यौवनदशामपि अवाप। यथा वत्सतर: गौ वृष-ताम् प्राप्नोति। यथा वा गज: द्विपेन्द्र-ावं प्राप्नोति तथा रघु: यौवन प्राप्य अतीव गम्-ीर: सुनदरय आसीत्। तदाह कवि: ॅ

महोक्षतां वत्सतर: स्पृशान्निव द्विपेन्द्र-ावं कल-: श्रयन्निव।

रघु: क्रमाद्यौवन-िन्नशैशव: पुपोष गाम्-ीर्यमनोहरं वपु:॥ण८क्ष इति॥

ततश्च गोदान विधिं यथावत् अनुष्ठितवान् रघु:। गोदानं नाम गाव: लोमानि केशा: दीयन्ते। खण्ड्यन्ते अस्मिन् इति ब्राह्मणादीनां षोडशादिषु वर्षेषु कर्तव्यं केशान्ताख्यं कर्म। तदीदं उ­ं ॅ

केशान्त: षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधियते।

राजन्य बन्धो: द्वाविंशे वैश्यस्य द्व्यधिके तत:॥ इति॥

एतादृश गोदान विधेरनन्तरं रघो: विवाह दीक्षां निरवर्तयत् दिलीप:। तदाह ॅ

अथास्य गोदानविधे रनन्तरं विवाहदीक्षां निरवर्तयद् गुरु:।

नरेन्द्रकन्यास्तमवाप्य सत्पतिं तमोनुदं दक्षसुता इवाब-ु:॥ण९क्ष इति॥

एवं रघो: पुत्रस्य अजस्य विवाहोऽपि षष्ठसर्गे वर्णित:। विदर्-राज्यस्य          -ोजराजेन  स्व-गिन्या: इन्दुमत्या: स्वयम्बरं कल्पितम्। तत्र राजकुमारी इन्दुमती रघुनन्दनस्याजस्य कण्ठे मालां स्थापयामास। तत: अज: विदर्-नगर परिक्रमानन्तरं विवाहमण्डपं प्रविष्टवान्। तत्र अज: रत्नै: सहितं मधुपर्कमिश्रं अघर्यं पूजासाधनद्रव्यं दुकूलयुग्मं च -ोजात् गृहीतवान्। तदाह ॅ

महार्हसिंहासनसंस्थितोऽसौ सरत्नमर्ध्यं मधुपर्कॅमिश्रम्।

-ोजोपनीतं च दुकूलयुग्मं जग्राह सार्धं वनिताकटाक्षै:॥ण१०क्ष इति॥

तत: आज्यादि-ि: द्रव्यै: अग्निं हुत्वा तमेव च अग्निं विवाह साक्षे कृत्वा बधूवरौ योजयामास -ोजपति: इति अग्निसाक्षि पुरस्सरं पाणिग्रहणकर्म अवश्यं कार्यं इति धर्मशास्त्रो­विधानं कवि: अत्र स्मारयामास। यथा ॅ

तत्रर्चितो -ोजपते: पूरधा हुत्वाग्निमाज्यादि-िग्निकल्प:।

तमेव चाधाय विवाहॅसाक्ष्ये वधूॅवरौ संगममयांचकार॥ण११क्ष इति॥

हस्तेन हस्तं परिगृह्य वध्वा: स राजसूनु: सुतरां चकासे।

अनन्तराशोकलताप्रवालं प्राप्येव चूत: प्रतिपल्लवेन॥ण१२क्ष इति च॥

प्रदक्षिणप्रक्रमणात्कृशानोरुदर्चिषस्तन्मिथुनं चकासे।

मेरोरुपान्तेष्विव वर्तमानमन्योन्यसंस­महस्त्रियामम्॥ण१३क्ष इति॥

इति वचनेन अग्नि प्रदक्षिणीकरणमपि दम्पत्यो: अवश्य कर्तव्यमिति सूचयति कवि:। तत: लाजहोम विधानमपि कविना प्रो­म्। यथा ॅ

नितम्बगुर्वी गुरुणा प्रयु­ा बधूर्विधातृप्रतिमेन तेन।

चकार सा मत्तचकोरनेत्रा लज्जावतो लाजविसर्गमग्नौ॥ण१४क्ष इति॥

एतादृश सकलसंस्कारविधिना पवित्रीकृतजन्मान: रघुवंशीया: इति

सोऽहमाजन्मशुद्धानामाफलोदयकर्मणाम्।

आसमुद्रक्षितीशानामानाकरथवर्त्मनाम्॥ण१५क्ष इति॥

यथाविधिहुताग्नीनां यथाकामार्चितार्थिनाम्।

यथाऽपराधदण्डानां यथाकालप्रबोधितम्॥ण१६क्ष इति॥

त्यागाय सं-ृतार्थानां सत्याय मित-ाषिणाम्।

यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम्॥ण१७क्ष इति॥

शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।

वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्॥ण१८क्ष इति॥

रघूणामन्वयं वक्ष्ये तनुवाग्वि-वोऽपि सन्।

तद्गुणै: कर्णमागत्य चापलाय प्रचोदित:॥ण१९क्ष इति॥

इति सद्वंश गुणानु कीर्तने स्वयं चापलाय तद्गुणैरेव प्रचोदित: इति कालिदास: आत्मन: धन्यतां मेने।

शैशवावस्थायां सर्वेषां विद्याभ्यास:। युवावस्थायां सन्तानप्रात्प्यर्थं दारपरिग्रह:। वृद्धावस्थायां मुनि: इति सूचयित्वा शरीरत्यागस्य वर्णनमपि उल्लिखितम् अत्र। यथा ॅ

शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।

वार्द्धके मुमिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्॥ण२०क्ष इति॥

रघुवंशे अन्त्येष्टि संस्कार: द्विविधरूपेण -वति इति कालिदासेन वर्णितम्। यथा समाधि: अग्निदाहश्चेति॥ यथा ॅ

श्रुतदेहविसर्जन: पितुश्चिरमश्रूणि विमुच्य राघव:।

विदधे विधिमस्य नैष्टिकं यति-ि: सार्धमनग्निचित्॥ण२१क्ष इति॥

रघो: देहत्यागे सति तत्पुत्र: अज: आहिताग्नि: समाधिरूपं संस्कारं स्वपितु: अकरोत्। अर्थात् दाहसंस्कारं न कृतवान् इति। यतो हि ॅ

घसर्वसंगनिवृत्तस्य ध्यानयोगरतस्यच  न तस्य दहनं कार्यं

नैव पिण्डोदकक्रिया: विदध्यात् प्रणवेनैव विले -िक्षो: कलेवरम्

प्रोक्षणं खननं चैव पिण्डोदकक्रिया:।

खननं चैव सर्वं तेनैव कारयेत्घ ॥

इति शौनकवचनेन सन्यासिनां ्यज्ञानिनांफ दाहसंस्कार निषेध दर्शनात्।



स त्वनेकवनितासखोऽपि सन्पावनीमनवलोक्य सन्ततिम्।

वैद्ययत्नपरिमाविनं गदं न प्रदीप इव वायुमत्यगात्॥ण२२क्ष

तं गृहोपवन एव सङ्गता: पश्चिमक्रतुदिवा पुरोधसा।

रोगशान्तिमपदिश्य मन्त्रिण: सम्-ृते शिखिनि गूढमादधु:॥ण२३क्ष इति॥

इत्यत्र दाह संस्कारोऽपि सूचित:। तथा च रघुवंश महाकाव्ये पुंसवनात् आरभ्य अन्त्येष्टिं यावत् कालिदास: संस्कारान् सर्वान् यथाविधि: प्रत्यपादयत्।





ण१क्ष म्अछझूम्ीत्अ छअस्। छैप्त् ख्ढ स्अन्स्कर््ीत्। प्ख्न्छीर्र्च्झैय् ून्ीवर््ैस्ीत्य्।

प्ूछूर्र्च्झैय् - १४

ण२क्ष रघुवंशम् ॅ ३ ॒ ५

ण३क्ष रघुवंशम् ॅ ३ ॒ ९

ण४क्ष रघुवंशम् ॅ ३ ॒ १०

ण५क्ष रघुवंशम् ॅ ३॒२१

ण६क्ष रघुुवंशम् ॅ ३॒२८

ण७क्ष रघुवंशम् ॅ३॒२९

ण८क्ष रघुवशम् ॅ३॒३२

ण९क्ष रघुवंशम् ॅ ३॒३३



ण१०क्ष रघुवंशम् ॅ ७॒१८

ण११क्ष रघवंशम्ु ॅ ७॒२०

ण१२क्ष रघुवंशम् ॅ ७॒२९

ण१३क्ष रघुवंशम् ॅ ७॒२४

ण१४क्ष रघुवंशम् ॅ ७॒२५

ण१५क्ष रघुवंशम् ॅ १॒५

ण१६क्ष रघुवंशम् ॅ १॒६

ण१७क्ष रघुवंशम् ॅ १॒७

ण१८क्ष रघुवंशम् ॅ १॒८

ण१९क्ष रघुवंशम् ॅ १॒९

ण२०क्ष रघुवंशम् ॅ १॒८

ण२१क्ष रघुवंशम् ॅ ८॒२५

ण२२क्ष रघुवंशम् ॅ १९ ॒ ५३

ण२३क्ष रघुवंशम् ॅ १९ ॒ ५४

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